व्यंग्य संग्रह – बैंक लोन एक ऐसा संग्रह है जो बैंक लोन की दुनिया को बिल्कुल नए और मनोरंजक दृष्टिकोण से पेश करता है। जहां एक ओर बैंक लोन शब्द सुनते ही आम आदमी के माथे पर शिकन आ जाती है, वहीं इस पुस्तक में इसी विषय को व्यंग्यात्मक और हास्यपूर्ण अंदाज़ में प्रस्तुत किया गया है।
यह संग्रह दिखाता है कि कैसे एक साधारण आदमी अपनी छोटी सी ज़रूरत को पूरा करने के लिए बैंक की बड़ी-बड़ी शर्तों, मोटे-मोटे दस्तावेज़ों और ऊँची-ऊँची बातों की भूलभुलैया में फंस जाता है। एक पात्र को सिर्फ़ ₹50,000 का लोन चाहिए, लेकिन बैंक उससे ₹5 लाख की इनकम प्रूफ और ₹10 लाख की गारंटी मांगता है! यही विडंबना इस किताब के हर पन्ने पर मज़ेदार तरीके से उभारी गई है।
पुस्तक में वर्णित हर व्यंग्य-कथा अपने आप में एक सामाजिक आलोचना भी है जो हमारी सरकारी व्यवस्था, बैंकों की जटिल प्रक्रिया और आम आदमी की विवशता पर गहरे सवाल उठाती है, लेकिन एक मुस्कान के साथ। लेखों में बैंक अफसरों की चाय के प्याले से लेकर ग्राहक के कागज़ों की फाइल तक, हर पहलू पर चुटीले कटाक्ष किए गए हैं।
Bank Loan: Vyangya Sangrah न केवल एक हँसाने वाला साहित्यिक संग्रह है, बल्कि यह एक दस्तावेज़ भी है उस व्यवस्था का, जो हमें कर्ज़ के लिए तरसाती है और फिर भी हमें उस पर हँसने की हिम्मत देती है। यह पुस्तक खासकर उन पाठकों के लिए है जो वित्तीय जीवन के गंभीर पहलुओं को हल्के-फुल्के अंदाज़ में पढ़ना पसंद करते हैं।
“जी, आपकी मासिक आय कितनी है?” बैंक के अधिकारी ने एक ऐसी मुस्कान के साथ प्रश्न किया जैसे मेरी निर्धनता का उपहास कर रहा हो। मैंने संजीदगी से उत्तर दिया, “अगर आय होती तो क्या लोन लेने के लिए यहाँ आता?” उसकी मुस्कान को निस्तेज करते हुए मैंने कहा।
“तो फिर, इस स्थिति में, बैंक आपको ऋण प्रदान नहीं कर सकती,” उसने अत्यधिक दुख के स्वर में कहा, जैसे मेरी निर्धनता पर सहानुभूति प्रकट कर रहा हो, और मानो इसके आगे कुछ कहना व्यर्थ हो।
“जिसकी आय अच्छी हो, वो भला बैंक में लोन लेने क्यों आएगा? आप भी कैसी बातें कर रहे हैं साहब!” मैंने लगभग करुणा से भरे स्वर में कहा।
“तो फिर, किसी निजी बैंक से लोन ले लीजिए। हमारी सरकारी बैंक तो सिर्फ उन्हीं को ऋण देती है, जो लाखों-करोड़ों का कर्ज लेकर उसे लौटाते ही नहीं, और फिर हम सरकार से उसकी वसूली कर लेते हैं।” यह सुनकर मेरी आंखों में एक चमक उभर आई।
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